भारतीय सनातन में प्राचीन ग्रंथों के अनुसार – जब सृष्टि की रचना प्रारम्भ होती है तब अव्यक्त से सृष्टि के सब व्यक्त पदार्थ उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम ‘चैतन्य आकाश’ में स्पन्द हुआ। उस स्पन्द से ‘स्फोट’ हुआ। उससे ‘ओम्कार’ (ॐ) शब्द (नाद) की विलक्षण गूँज उत्पन्न हुई। (Primordial-explosion resulted a pronounced sound ‘Big-Bang’. This is modern theory. This theory is quite similar to ancient Hindu Philosophy.) उसी को ‘शब्द ब्रह्म’ कहते हैं।
उससे सर्वप्रथम आकाश प्रकट हुआ। फिर वायु उत्पन्न हुई, फिर अग्रि उत्पन्न हुई, फिर जल का प्रादुर्भाव हुआ। फिर पृथ्वी तत्त्व उत्पन्न हुआ। इनको हमारे धर्मशास्त्रों में ‘पंच तत्त्व’ कहा गया। इन्हें ‘पंचमहाभूत’ भी कहते हैं अर्थात् सृष्टि को बनाने वाले मूलभूत पदार्थ। फिर पृथ्वी से वनस्पति, वनस्पति से अन्न और अन्न से जीव की उत्पत्ति हुई।
हमारे धर्मशास्त्रों में इन पंच तत्त्वों के स्वामियों को ‘देवता’ कहा गया है जैसे- (1) आकाश देवता, (2) वायु देवता, (3) अग्नि देवता, (4) जल देवता और (5) पृथ्वी माता।
ये पाँचों देवता भगवान् ब्रह्माजी की सभा में देवताओं के स्वरूप में सशरीर विद्यमान रहते हैं और दूसरी ओर अन्तरिक्ष में व्याप्त रहकर सृष्टि का संचालन करते हैं।
(1) आकाश देवता : आकाश की गणना पंचमहाभूतों में सबसे प्रथम है। आकाश के अधिष्ठातृ देवता की पूजा पंच लोकपालों में की जाती है। गृह निर्माण के समय गृह के बाहरी भाग में आकाश देवता की पूजा होती है। (मत्स्य पुराण 253/२४)। जहाँ आकाश एक रूप से मूर्तिमान देवता के रूप में अपने उपासकों का कल्याण करते हैं, वहीं दूसरे रूप से सर्वत्र व्याप्त रहकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा समस्त प्राणियों के जीवन के प्राण रूप में स्थित रहते हैं। अत: ये परमात्मा के ही रूप हैं। आकाश में न गन्ध है, न रस है, न रूप है और न स्पर्श है अत: यह निराकार, निर्विकार ब्रह्म का प्रतिरूप है। वेदों ने ‘खं ब्रह्म’ कहकर आकाश की यह प्रतिरूपता व्यक्त की है।
(2) वायु देवता (पवन देवता) : इनके भी दो रूप हैं। एक रूप से वे अपने ‘पवन लोक’ में मूर्तिमान रूप से निवास करते हैं तथा वायव्य कोण के अधिष्ठाता देवता के रूप में दस लोकपालों या दिक्पालों में परिगणित होते हैं। वे दस दिशाएँ हैं – (1) पूर्व, (2) आग्नेय, (3) दक्षिण, (4) नैर्ऋत्य, (5) पश्चिम, (6) वायव्य (पवन), (7) उत्तर, (8) ईशान, (9) उर्ध्व तथा (10) अध:। क्रमश: ये दस दिशाएँ हिन्दू शास्त्रों में बतायी गई हैं। प्रत्येक दिशा के अधिपति के रूप में एक एक देवता, इस प्रकार दसो दिशाओं के दस अधिष्ठाता देवता ही दश ‘दिक्पाल देवता’ कहे जाते हैं। उसमें ‘वायव्य कोण’ के देवता, ‘वायु देवता’ हैं। दूसरे रूप में वे प्रवहमान वायु हैं और सभी प्राणियों के बाह्म और अन्दर व्याप्त होते हुए सृष्टि का संचालन कर रहे हैं। जीव के शरीर के अन्दर वे दस प्राण रूपों में विचरण करते हुए शरीर का सन्तुलित संचालन व पालन- पोषण करते हैं। वे दस प्राण रूपी वायु तत्त्व हैं (1) प्राण वायु, (2) अपान वायु, (3) व्यान वायु, (4) उदान वायु, (5) समान वायु, (6) नाग, (7) कूर्म, (8) कृकर, (9) देवदत्त और (10) धनञ्जय
पवन देवता महाबली ‘श्री हनुमानजी’ के पिता के रूप में वर्णित हुए हैं। वायुदेव के द्वारा ही हमें यजुर्वेद की प्राप्ति हुई है (मनुस्मृति 1/२३)। इनके द्वारा ही हमें ‘वायु-पुराण’ प्राप्त हुआ है।
(3) अग्नि देवता : अग्निदेव भी प्राणियों के जीवन के लिये अतीव उपयोगी हैं। अग्नि से देह में गर्मी बनी रहती है। यदि देह में यह ताप न रह जाये तो प्राणी तुरन्त मर जाये। अग्निदेव मानव शरीर में सात रूप से काम करते हैं। इन्हें सप्त धात्वग्नियाँ कहते हैं। इनमें से एक भोजन पचा कर रस बनाती है, दूसरी रस से रक्त, तीसरी रक्त से मांस, चौथी मांस से मेद, पाँचवीं मेद से अस्थि और छठी अस्थि से मज्जा और सातवीं मज्जा से रेत (वीर्य) का निर्माण करती है। अग्नि का शाब्दिक अर्थ है। ‘आगे रहने वाले’। यह अग्रि नाम ही सूचित करता है कि प्राणियों की भलाई के काम में ये देवता निरन्तर अपने को आगे रखते हैं। (निरुक्त 7/४)। अग्निदेव से ही विश्व को ऋग्वेद प्राप्त हुआ (मनुस्मृति १/२३)। ‘अग्नि पुराण’ के ये ही वक्ता है और इन्हीं के नाम पर उसका नाम ‘अग्नि पुराण’ प्रसिद्ध हुआ। निरूक्त के अनुसार मध्यम स्थानीय विद्युत और उत्तम स्थानीय सूर्य इन दोनों को भी ‘अग्नि’ शब्द से ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार अग्निदेव पार्थिव अग्नि, विद्युत अग्नि और सूर्य इन तीन रूपों में विभक्त होकर प्राणियों का कल्याण करते हैं।
(4) जलदेवता (वरूण देवता) : वेदों में ‘जल’ को महनीय देवता माना गया है। ऋग्वेद के चार स्वतन्त्र सूक्तों में जल की देवता रूप में स्तुति की गयी है। जल जीवन के लिए आवश्यक है। इसके अधिपति देवता ‘वरूण’ हैं। आचार्य यास्क जी ने इन्हें मध्यम स्थानीय देवता माना है।
(5) पृथ्वी माता : इस पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों का शरीर पार्थिव कहा जाता है। इसलिये कि यह ‘पृथ्वी तत्त्व’ से बना है। यद्यपि शरीर का निर्माण केवल पृथ्वी से ही नहीं, अपितु जल, अग्नि, वायु और आकाश इन तत्त्वों से भी हुआ है। परन्तु इसमें पृथ्वी तत्त्व की प्रचुरता होने से इस पार्थिव कहा जाता है। शरीर को उत्पन्न करने वाली ‘माता’ कही जाती है, इस दृष्टि से ‘पृथ्वी हमारी माता’ है। ऋग्वेद ने अनेक स्थलों पर सीख दी कि हम इन्हें ‘माता’ ही मानें। वास्तविकता तो यह है कि जन्म देने वाली हमारी माता का शरीर भी ‘पृथ्वी देवी’ की देन है। अत: ‘पृथ्वी देवी’ माताओं की भी माता है। हरिवंश पुराण में वर्णन आया है कि पृथ्वी देवी शरीर को केवल जन्म देकर हमसे अलग नहीं हो जाती, अपितु रहने के लिए आधार बनती है।
वस्त्र के लिये रुई, भरण पोषण के लिए भोजन उपजाती है। भगवान् ब्रह्मा की सभा में यह देवी स्वरूप में विद्यमान होती है और यथार्थ में यह एक एक पिण्ड के रूप में सूर्य का चक्कर लगा रही है और हम सबका एकमात्र आधार है।