ग्रंथों में वास्तुपुरुष के शरीर पर स्थित पैंतालीस देवता तथा उसके अतिरिक्त पद से बाहर स्थित देवताओं के बारे में बताया है। जैसा कि हम जानते हैं कि देवता शब्द संस्कृत की दिव् धातु से बना है। दिव् का अर्थ है प्रकाश या ऊर्जा। प्रत्येक देवता, एक प्रकार की ऊर्जा को अभिव्यक्त करता है। वास्तुपुरुष के शरीर पर स्थित 45 देवता भी अलग अलग प्रकार की 45 ऊर्जाओं को अभिव्यक्त करते हैं। अब यह कैसे ज्ञात हो कि कौन सा देवता किस प्रकार की ऊर्जा को अभिव्यक्त करता है? इसके संकेत हमें सांकेतिक विद्या से प्राप्त होते हैं।
वास्तु पुरुष के अंग के देवता
स्थापत्य निर्माण में वास्तु को पुरुष आकृति के समान निर्माण इस प्रकार करें कि वास्तु पद विन्यास के अलग अलग भाग पर देवताओं की स्थापना हो।
वास्तुपुरुष के सिर में अग्नि देव, दृष्टि (दोनों आँख) में दिति व मेघों के अधिपति पर्जन्य हैं। कान में अदिति व जयन्त हैं। मुख में वायु स्थित है।
दाहिनी भुजा में सूर्य तथा बाई भुजा में सोम स्थित है। वक्षस्थल पर महेंद्र, चरक व आपवत्स स्थित हैं।
दाहिने स्तन में आर्यमा तथा बाएं स्तन में पृथिवीधर स्थित है। बाई बाहु (भुजा में) यक्ष्मा, रोग, नाग, मुख्य व भल्लाट देवता है।
वास्तु पुरुष की दाहिनी बाहु में सत्य, भृश, नभ (अन्तरिक्ष), वायु व पूषा देवता स्थित है।
सावित्र व सविता, रुद्र व शक्तिधरा ये चार देवता दोनों हाथ की कोहिनी में स्थित हैं। हृदय में ब्रह्मा स्थित हैं। वितथ व औक:क्षत (गृहक्षत) वास्तुपुरुष की दाहिनी बगल में तथा शोष व असुर बाई बगल में स्थित हैं।
मित्र व विवस्वान उदर (पेट) में स्थित हैं।
लिंग के मध्य में इन्द्र व जय नामक दो देवता स्थित है। यम दाहिनी जंघा तथा वरूण बाईं जंघा पर स्थित है।
गन्धर्व, भृङ्ग, मृग दाहिनी जंघा पर स्थित हैं। द्वास्थ (दौवारिक), सुग्रीव तथा पुष्पदन्त बाईं जंघा पर स्थित हैं। पितृ पैर में स्थित है।
इक्यासी पर वास्तु में वास्तुपुरुष का सिर ईशान कोण (दिशा) में होता है। चौंसठ पद वास्तु में उसका सिर माहेन्द्री (पूर्व) दिशा में होता है।
इक्यासी पद वाले वास्तु से एक सौ पद का वास्तु उत्पन्न होता है। सोलह पद वाला वास्तु, चौंसठ पद वाले वास्तु से उत्पन्न होता है।
देवों के मध्य में कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा स्थित हैं। उनके हजार मुख हैं, वे आचिन्त्य (जो चिन्तन से समझा न जा सके) विभव (दौलत, धन, सम्पत्ति) हैं, वे सारे जगत के स्वामी हैं।
यहाँ जिस अग्नि का उल्लेख किया गया है, वे सर्वभूत हर भगवान शंकर हैं। जो पर्जनय देव हैं, वे बरसात करने वाले जल के स्वमी (बरसने वाले बादल) हैं।
द्विनाम (दो नाम वाले) वाले जयन्त, भगवान कश्यप ऋषि हैं। महेन्द्र, देवताओं के स्वामी तथा राक्षसों के संहारक (नाश करने वाले) हैं।
दिनकर विवस्वान को सूर्य (आदित्य) कहा है। प्राणियों के हितैषी (कल्याण चाहने वाला, मित्र) धर्म सत्य हैं। भृश कामदेव है।
अन्तरिक्ष को नभ (आकाश, अन्तरिख) कहा है। मारुत का वायु कहा गया है। पूषा का तात्पर्य मातृगण (देव माताओं का समूह) से है।
कलयुग का अतुलनीय (बेजोड़) पुत्र अधर्म को यहाँ वितथ बताया गया है। चन्द्रमा का पुत्र बुध यहाँ गृहक्षत बताया गया है।
प्रेतों के स्वामी श्रीमान यम है। गन्धर्व भगवान देव नारद कहे गए हैं।
निर्ऋति का पुत्र राक्षस को यहाँ भृङ्गराज कहा है। मृग का तात्पर्य ब्रह्म व धर्म हैं।
पितृगणों से पितृलोक के निवासी देव वर्णित है और दौवारिक से प्रथमों के स्वामी नन्दी है।
आदि प्रजापति, सृष्टि के कर्ता मनु सुग्रीव है। पुष्पदन्त विनता के पुत्र, महाजवशाली (जव तेजी, जल्दी)( बहुत तेज चलने वाले) वायु है।
वरुण जल के स्वामी तथा लोकपाल हैं। असुर राहु है, जिसने सूर्य व चन्द्रमा को ग्रसा (निगला) था, जो सिंहिका राक्षसी के पुत्र हैं।
शोष भगवान सूर्य के पुत्र शनि हैं। पापयक्ष्मा क्षय (हानि, पतन) कहा है। रोग को ज्वर (बुखार) कहा है।
सर्पों के स्वामी श्रीमान् वासुकि शेषनाग, नाग हैं। त्वष्टा तथा विश्वकर्मा, मुख्य कहे गए है।
चन्द्रमा को भल्लाट कहा है। कुबेर सोम है। चरक व्यवसाय है। अदिति लक्ष्मी है।
यहाँ जो दिति है, वह शूल (त्रिशूल) धारण करने वाले, वृषभ की ध्वजा वाले (भगवान शंकर है।) हिमवान आप है। आपवत्स उमा है।
आर्यमा आदित्य है। सावित्र वेदमाता है। विद्वानों ने गंगा को सविता कहा है।
शरीर को नष्ट करने वाला मृत्यु का नाम विवस्वान है। जय नामक वज्र धारण करने वाले बलवान हरि इन्द्र है।
हलधर माली मित्र हैं। महेश्वर रुद्र है। कार्तिकेय राजयक्ष्मा है। पृथ्वीधर अनन्त (शेषनाग) हैं।
चरकी, विदारी, पूतना व पापराक्षसी को राखस योनि में उत्पन्न देवताओं की अनुचरी (अनुयायी, सेवक) कहा है।
इस प्रकार से वास्तुदेवता का यह निघण्टु कहा गया है।
इस प्रकार से ग्रंथों में वास्तुपुरुष के अंगों का वर्णन किया। वास्तुपद के देवता के नाम भेद को भी कहा। वास्तुपुरुष के शरीर पर स्थित सोलह वर्ण को भी कहा।