भद्रा अथवा विष्टि पंचागों की एक व्यापक वस्तु है। जिस तिथि को विष्टि किरण पड़े उस दिन भद्रा होती है। यह प्राय: प्रत्येक द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टïमी और द्वादशी व त्रयोदशी को लगी रहती है। मुहर्त चिन्तामणि की पीयूष धारा व्याख्या में इसका विशेष वर्णन प्राप्त होता है। भद्रा क्या है और यह सभी शुभ एवं पूजन के कार्यों में क्यों वर्जित है इसके संबंध में लोगों की जिज्ञासा रहती है। कई पर्व त्यौहारों के अवसर पर हम देखते हैं कि भद्रा होने पर उसे टालकर कार्य किए जाते हैं। विशेषकर होलिका-दहन, रक्षा बंधन आदि पर निकलने वाले शुभ मुहूर्त टाला जाए।
भद्रा क्या है- भद्रा भगवान् सूर्यनारायण की कन्या है। यह भगवान् सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न है और शनैश्चर की सगी बहिन है। वह काले वर्ण, लम्बे केश, बेड़े-बेड़े दांत और बहुत ही भयंकर रूपवाली है। जन्मते ही वह संसार का ग्रास करने के लिये दौड़ी, यज्ञों में विध्र बाधा पहुँचाने लगी और उत्सवों तथा मंगल-यात्रा आदि में उपद्रव करने लगी और पूरे जगत को पीड़ा पहुँचाने लगी। उसके इस प्रकार के स्वभाव को देख कर भगवान सूर्य अत्यन्त चिन्तित हो उठे और उन्होंने शीघ्र ही उसका विवाह करने का विचार किया। जब जिस-जिस भी देवता, असुर, किन्नर आदि से सूर्यनारायण ने विवाह करने का प्रस्ताव रखा, तब उस भंयकर कन्या से कोई भी विवाह करने को तैयार नहीं हुआ। दु:खित हो सूर्यनारायण ने अपनी कन्या के विवाह के लिये मण्डप बनवाया, पर उसने मण्डप-तोरण आदि सबको उखाड़ कर फेंक दिया और सभी लोगों को कष्टï देने लगी। सूर्यनारायण ने सोचा कि इस दुष्टïा, कुरूपा, स्वेच्छाचारिणी कन्या का विवाह किसके साथ किया जाय। इसी समय प्रजा के दु:ख को देखकर ब्रह्मïाजी ने भी सूर्य के पास आकर उनकी कन्या द्वारा किये गये दुष्कर्मों को बतलाया। यह सुन कर सूर्यनारायण ने कहा ब्रह्मïन्ï् आप ही तो संसार के कर्ता तथा भर्ता हैं, फिर आप मुझे ऐसा क्यों कह रहे हैं। जो भी आप उचित समझें वही करें। सूर्यनारायण का ऐसा वचन सुनकर ब्रह्मïाजी ने विष्टिï को बुलाकर कहा-भद्रे बव, बालव, कौलव आदि करणों के अन्त में तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, प्रवेश, मांगल्य कृत्य, खेती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य तुम्हारे समय में करें, उन्हीं में तुम विध्र करो। तीन दिन तक किसी प्रकार की बाधा न डालों। चौथे दिन के आधे भाग में देवता और असुर तुम्हारी पूजा करेंगे। जो तुम्हारा आदर न करें उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना। इस प्रकार विष्टिï भी देवता, दैत्य, मनुष्य सब प्राणियों को कष्टï देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई और वह अति दष्टï प्रकृति की है, इसलिये मांगलिक कार्यों में उसका अवश्य त्याग करना चाहिये।
भद्रा पाँच घड़ी मुख में, दो घड़ी कण्ठ में, ग्यारह घड़ी हृदय में, चार घड़ी नाभि में, पाँच घड़ी कटि में और तीन घड़ी पुच्छ में रहती है। भद्रा मुख में रहती है तब कार्य का नाश होता है। कण्ठ में धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कलह, कटि में अर्थभंश होता है पर पुच्छ में निश्चित रूप से विजय एवं कार्य की सिद्घि होती है।
धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना। कालरात्रिर्महारूद्रा विधष्टिश्च कुलपुत्रिका॥
भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयंकरी। द्घादशैव तु नामानि प्रातरूत्थाय य: पठेत्॥
न च व्याधिर्भवेत्ï तस्य रोगी रोगात्ï प्रमुच्यते। ग्रहा: सर्वेनुकूला: स्युर्न च विध्नादि जायते॥
रणे राजकुले द्यूते सर्वत्र विजयी भवेत्।
भद्रा के बारह नाम हैं:-
(1) धन्या (2) दधिमुखी (3) भद्रा (4) महामारी (5) खरानना (6) कालरात्रि (7) महारूद्रा (8) विष्टï (9) कुलपुत्रिका (10) भैरवी (11) महाकाली (12) असुरक्षयकरी
इन बारह नामों का जो प्राय:- उठकर स्मरण करता है, उसे किसी भी व्याधि का भय नहीं होता है। रोगी रोग से मुक्त हो जाता है, सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। उसके कार्यों में कोई विध्न नहीं होता है, युद्घ में तथा राजकुल में वह विजय प्राप्त करता है।
भद्रा का वास:- कर्क, सिंह, कुंभ मीन इन राशियों में चन्द्रमा होने पर भद्रा का वास मृत्यु लोक में माना गया है। मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशियों में चन्द्रमा होने पर स्वर्ग लोक में भद्रा का वास और कन्या, धनु, तुला व मकर राशियों में चन्द्रमा हो तो भद्रा का वास पाताल लोक में होना माना गया है।
फल:- स्वर्ग में भद्रा हो तो कार्य में शुभफल, पाताल में होतो धन लाभ और मृत्यु लोक में हो तो विनाश। भद्रा का परिहार करके सभी काम करने चाहिए। ऐसा कहा गया है।