हमारे प्राचीन ऋषि वराहमिहिर ने इस सम्बंध मे जो ग्रन्थ लिखे है उनसे भूमिगत जल को जानने के लिये उसकी व्यवस्था, शुद्धता बनाने तक के बारे मे विस्तृत अनुसंधान कर, जन-जन को बताया है अमर कोष के अनुसार जल के लिये अनेक पर्यायवाची शब्दो का प्रयोग किया जाता है जैसे पानी, उदक, नीर, सलिल, अमृत, पेय, आप, अम्भ, तोय आदि भूमिगत जल के ज्ञान को दर्कागल कहते है।
मनुष्य के अंग नाडियो, शिराओ की भांति ही भूमि गति जल की शिराएँ बहती रहती है।
वृक्ष हमारे लिए कितने उपयोगी है जाने:
१. जिस वृक्ष की शाखा नीचे झुकी हो और पीली पड गई हो उसके करीब १० फुट से की नीचे पानी होता है।
२. जहाँ पर स्वस्थ वृक्ष गुल्म लता हो उस भूमि के नीचे से १० से भी कम गहराई मे पानी होना चाहिए।
३. जिस भूमि पर कटोरी वृक्ष सफेद पुष्पो से युक्त हो उसके १० से १५ की नीचे पानी होना चाहिए।
४. वाराहमिहिर ने शमी, कंजर, महुएँ, जामुन, खजूर, गूलर, विल्व, वृक्ष, बेर, बट, अर्जुन आदि लगभग ६८ प्रकार के वृक्षो के लिये जलधाराओ के होने के लिये विस्तृत विवरण बताऐ है।
५. जिस स्थान पर सफेद दूब या सफेद कुशा दिखाई दे उसके नीचे कुँआ खोदने पर पानी निकलेगा।
६. बेर और लाल कंरज के दोनो वृक्ष एक साथ स्थित हो तो उसके पश्चिम मे मीठा जल का स्त्रोत होगा।
७. भूमि के ताप से भी जल शिरा का ज्ञान होता है जैसे किसी भूमि पर नंगे पैर चलिए और यदि जब कही भूमि गर्म हो और किसी एक स्थान पर ठंडी हो तो वहाँ पर पानी का स्त्रोत होगा इसी तरह ठंडी भूमि मे किसी विशेष सीन पर गरम भूमि हो तो वहाँ पर भी पानी होना चाहिए। चलने मे यदि किसी स्थान पर प्रकृति के रूप मे भूमि दब जावे तो वहा पर पानी होगा यदि किसी भूमि पर पैर पटकने से गम्भीर शब्द सुनाई पडे तो वहाँ पर जल होगा आदि आदि।
यष्टिका द्वारा भूमिगत जल का ज्ञान
यह भारतवर्ष मे बहुत ही प्रचीन प्रथा है जिससे भूमिगत जल के स्त्रोत की खोज की जाती है इसके लिए गूलर, खजूर, जामुन, मेहन्दी के वृक्षो की अग्रेजी शब्द की आकार की लकडी को काम मे लेते है।
विधि: शुभ मूहुर्त मे, वूर्ण शुद्धता, और मंगल कामना से, अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना के बाद उपरोक्त बनाये गये वृक्षो मे से जो भी सुलभ हो आकार की लकडी के दोनो हाथो की मुटिठयो मे पकडकर नंगे पैर भूमि पर धीरे-धीरे चले जिस स्थान पर जल की शिरा होगी यष्टिका मे हलचल शुरू हो जायेगी तथा नीचे की ओर झुकने लगेगी अनुभवो के बाद जल शिरा के बेग का भी पता लगने लगता है तथा इस स्थान पर कुआँ या टयूब बेल मे पानी निकलने लगता है।
लोगो का कहना है कि जो व्यक्ति पैर से जन्म लेते है यानी उल्टे पैदा होते है उनको इस कार्य मे अधिक सफलता मिलती है।
पेड़-पौधो द्वारा जल का अनुमान
कहा गया है कि जिस धरती मे वृक्षो, पौधो, लताओ के पत्ते चिकने एवं छिद्र रहित हो अथवा जहाँ पाटल या गुलाब, खजूर, अर्जुन एवं दूध वाले वृक्ष या पौधे हो, वहाँ साढे दस हाथ अर्थात सोलह फुट नीचे जल स्त्रोत होता है। कुछ स्थानो पर प्राय: जलाभाव होता है। ऐसे स्थानो पर यदि जामुन का वृक्ष हो एवं उसके पत्ते और फल विकृत न हो, उसके उत्तर दिशा मे तीन हाथ दूर लगभग सत्ताइस फुट नीचे खारे जल का स्त्रोत होता है। भटकटैया का पौधा यदि श्वेत पुष्पो से युक्त हो तो उसके लगभग सोलह फुट नीचे प्रचुर मात्रा मे भी जल स्त्रोत होता है।
घास से जल और धन का ज्ञान
१. किसी घास रहित प्रदेश मे कही पर घास है और उसके मध्य मे बिना घास का स्थान है तो उसके नीचे पानी या धन की संभावना होती है।
२. भूमि ताडन से जल ज्ञान भूमि को पैर से मारने पर जिस स्थान पर गम्भीर, मधुर शब्द निकले, तो उस स्थान पर पानी होगा
३. सफेद फूलो वाले पलास वृक्ष के दक्षिण मे भूमिगत जल स्त्रोत होगा।
४. वाल्मीक के ऊपर यदि पीली घास का कुशा हो तो उसके नीचे पानी होगा।
भूमिगत जल
वास्तु राजवल्लभ ग्रंथ मे कहा गया है-
शर्करा ताम्रमही कषायं क्षारं धरित्री। कपिला करोता आ पाण्डुरायां लवणं।।
प्रदिष्ट मिष्ट पयोनील वसुंधरायाम
अर्थात शर्करायुक्त या रेतीली, ताम्रवाणी या रक्तिमवर्ण धरती के भीतर तिक्त या कडवा जल होता है। इसी प्रकार कपिल वर्ण की भूमि के नीचे नमकीन या खरा जल तथा नीलवर्णी भूमि के नीचे मधुर जल का स्त्रोत होता है।
विश्वकर्मा प्रकाश मे कहा गया है कि जो धरती मूंगे के रंग या असितवर्णी होती है पके हुए गूलर की तरह जिसका रंग होता है, जहाँ काला पत्थर मिले, जो प्रहार करने से चूर-चूर हो जाएँ, उसके नीचे प्रचुर मात्रा मे जल होता है। ज्योतिष विज्ञान के पुरोधाचार्य वराहमिहिर ने भूमि एवं पेड़-पौधो को देखकर जल स्त्रोतो की स्थिति का अनुमान लगाने का विशाद वर्णन किया है। वरहमिहिर के अनुसार जिस भूमि से वाष्प या भाप निकाले जहाँ धुंए जैसे वातावरण दिखाई दे, वहाँ सात हाँथ अर्थात साढे दस फुट नीचे प्रचुर मात्रा मे जल प्राप्त होता है। दुर्गंधयुक्त, अनुपयोगी जल मिलने लगा हो तो शुद्धि के उपाय भी वास्तु शास्त्र मे बताए गए है। कहा गया है-
अंजन अर्थात कुटकी या कृष्ण कपास नागरमोथा, खर, चमतरोई इन सभी का चूर्ण कर कटकफल जल के सभी विकार नष्ट हो जाते है और स्वादिष्ट तथा सुगंधयुक्त जल की प्राप्ति होती है।