समृग सृष्टि शब्द के आणविक स्तरों से आवृत है। शब्द ब्रह्म के समकक्ष है। मानवता की अनिरुद्ध यात्रा का अक्षर पाथेय बनकर शब्द ने अपनी अनन्त एवं असीम अनिवार्यता का परिचय दिया है।
मंत्रि गुप्तभाषणे धातु से घञ् प्रत्यय द्वारा निष्पन्न मंत्र एक अनुभूतिशक्य असार्वजनिक गोपन संवेदना को रेखांकित करता है। तंत्रशास्त्रानुसार समस्त भावों के मनन और सम्पूर्ण जगत के त्राण में समर्थ शक्ति मंत्र स्वरूप में सुविदित है। मूल की एकात्मकता उपाधिवशात् बहुवस्तु संस्पर्शिनी हो जाती है :-
मननात्सर्वभावानां त्राणत् संसारसागरात्।
मंत्ररूपा हि तच्छशक्तिर्मननत्राणरूपिणी।।
मनन, विज्ञान, विद्या और ज्ञान भी मंत्र से अभिहित होते हैं। मंत्र से अनुशासित एवं नियमित ध्वनि-समूह का भी अवबोधन होता है। महार्थ मंजरी के अनुसार मनन योग्य शब्द-ध्वनि मंत्र है (मननत्राणधर्माणो मंत्रा:) मनन द्वारा अभ्युदित एवं वैभवोद्यत पराशक्ति – समन्वित शब्द समूह मंत्र है –
मननमयी निजविभवे निज संकोच मय त्राणमयी।
कवलितविश्वविकल्पा अनुभूति: कापि मंत्रशब्दार्थ।।
मीमांसा दर्शन के मत से मंत्र देवता का अक्षरावतार है। मं स्वतंत्र एवं सम्पूर्ण सत्य-सत्ता है जो देवात्मा से अद्वैत है। आत्मकुपित युग में कुहेलिका की अन्तर्लापिका के सूत्रशोध से पराभूत मनुष्य के भव्य भविष्य की भूमिका है मंत्र।
मंत्र में अन्तर्भूत अलक्षित क्षमताओं विवेचन के दो प्रमुख साधन हैं :-
(1.) शब्द एवं
(2.) शब्द की मौलिक भावना।
शब्द को ध्वनि और भावना को विद्युतसे भी अभिहित किया जा सकता है। ये दोनों आधार इन्द्रियगम्य जगत और इन्द्रियातीत जगत का प्रतिनिधित्व करते हैं। सर्वप्रथम ध्वनि एवं भावनात्मक विद्युत के विश्लेषण के माध्यम से मंत्र के संरचना-संसार की व्याख्या समीचीन होगी।
भारतीय मनीषा ने व्यक्ति के पंचकोषमय अस्तित्व की उद्घोषणा की है – अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष। आधुनिक शब्दावली में इनका रूपान्तरण और समाहार इस प्रकार है –
- अन्नमय कोष
- प्राणमय कोष भौतिक देह – 1
- मनोमय कोष
- आनन्दमय कोष मानसिक देह -2
- विज्ञान मय कोष वैद्युतिक देह -3
इस विभाजन से यह समीकरण सुस्पष्ट है कि मनोगत भावना को तरंगदैध्र्य तक आने से पूर्व स्वयं को विद्युत रूप में परिवर्तित करना पड़ता है। मानसिक देह से प्रारंभ हुई भावना यात्रा वैद्युतिक देह को आत्मसात करती हुई भौतिक देह तक आकर मूर्तरूप प्राप्त करती है।
मंत्र में ध्वनि के स्थान-निर्धारण से पूर्व ध्वनि के प्रकारों का पार्थक्य आवश्यक है। ध्वनि के दो प्रकार हैं-
- कर्णगम्य ध्वनि।
- कर्णातीत ध्वनि।
विज्ञान उसी ध्वनिका विश्लेषण कर रहा है जो कर्ण से ग्रहणीय है किन्तु कर्णातीत ध्वनि के विषय में वैज्ञानिक मौन हें। इस सन्दभ्र में भारतीय शास्त्रीय संगीत का उल्लेख प्रसंगानुकूल होगा। सिद्ध गायकों को ध्यान से सुनने पर आभासित होता है कि कंठ के मर्मस्थानों से निकलने वाली ध्वनियों के कंठाग्र पर आने से पूर्व वे अपना रूप प्राप्त कर रही है। इन कंठगत मर्मथलों को शब्द शास्त्र में वृत्ति कहा गया है। वृत्ति के निम्नलिखित प्रकार है:-
- परा
- पश्चन्ती
- मध्यमा एव
- वैखरी
मंत्र मंथन
कर्णगोचर ध्वनियों के उपरान्त इन दुर्लभ स्वर-स्फोट-स्थलों की साधना तपोनिष्ठ एवं परमसंकल्पवान व्यक्तित्व का विषय है। वैखरी वृत्ति की साधना शब्द को ब्रह्म से एकाकार करती है।
मंत्र – साधना से जिन परिणामों की प्राप्ति संभावित होती है उनका परोक्ष संबंध ध्वनि के कर्णगम्य स्वरूप से नहीं होता। मंत्र की ध्वनियाँ अत्यन्त सूक्ष्म और दू्रत अकल्पित तरंगों से विस्फारित होती हैं जो कर्णातीत होती हैं। कर्णगम्य श्रव्य ध्वनि की सामथ्र्य और सीमा निर्धारित है किन्तु अश्रव्य ध्वनि की प्रभावत्ता और शक्तिमत्ता अननुमेय और अप्रमेय होती है। इसलिये मंत्र शास्त्र में श्रव्य ध्वनि को तृतीय स्थान प्रदान किया गया है। जप के निम्नलिखित प्रभेद किये गये हैं:-
- प्रौष्ठ – इस जप में ध्वनि श्रवणगम्य होती है।
- उपांशु – इस जप भेद में प्रौष्ठ से दस गुनी बारम्बारितायुक्त ध्वनि-तरंगें होती हैं। इसमें जप साँस की गति में घुल मिल जाती है।
- मानसिक – इस जप भेद में उपांशु से दस गुनी बारम्बारितायुक्त ध्वनि-तरंगें होती हैं। कर्मेन्द्रिया और ज्ञानेन्द्रिर्यों की समस्त निष्ठा केन्द्रीभूत होकर संकल्प-विकलप की परिधि से परे निकालकर मंत्र को अनिर्वचनीय एवं इन्द्रियातीत स्वरूप प्रदान करती है। मन की अतिचेतना मंत्र का वाहन बनती है।
हं हनुमते नम:
हनुमत् कृपा प्राप्ति हेतु उक्त मंत्र का जप सभी अवरोध एवं व्यवधान का विनाश करता है। शत्रु पराजित होते हैं। आत्मरक्षा के साथ सभी प्रकार के भय, वधि आदि का भी हरण होता है। जिन व्यक्तियों के पंचम स्थान में मंगल की राशि हो या मंगल पंचम भावस्थ हो अथवा लग्न पर मंगल ग्रह का प्रभाव हो, उनके लिये हनुमत् उपासना की सर्वाधिक उपादेयता है। ऐसे व्यक्ति के लिये मंगल ग्रह, हनुमत् देवता या गणपति देवता की नियमित आराधना करना सर्वभांति कल्याणकारी सिद्ध होता है।
श्री हनुमान जी के प्रसन्नार्थ इस मंत्र का प्रतिदिन पाँच माला जप करें। जप से पूर्व हनुमानजी का पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन करें।
सर्वकल्याण आत्मरक्षक हनुमत द्वादशाक्षर कल्प
परमवीर पवन नदन वज्रांग इस युग के प्रत्यक्ष देवता हैं। साधक विश्वास पूर्वक, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ विधिपूर्वक इतनी उपासना करें तो ये प्रत्यक्ष हो सकते हैं क्योंकि ये अपने ब्रह्मचर्य व रामभक्ति के कारण चिरंजीवी हैं। रुद्र के अंशावतार होने के कारण प्रबल पराक्रमी भी हैं किन्तु ये रुद्र के सात्विक अंश हैं इसलिये इनकी उपासना भी सात्विक विधि से की जाती है तथा परपीडऩ या किसी अपवित्र कार्य के लिये इनका मंत्र प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए। जो इनकी शरण में चला गया, उस पर किसी भी प्रकार की विपत्ति या कृत्याप्रयोग अथवा ग्रहबाधा का प्रभाव नहीं होता। प्रस्तुत प्रयोग गरुड तंत्र में वर्णित हैं –
मंत्र –
हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्
विधि – किसी राम या विष्णु के मन्दिर में, निर्जन स्थान, नदी तरी, पर्वत अथवा वन में यह प्रयोग करना है। प्रयोग करने से पूर्व संकल्प बोलें। संकल्प में वर्ष, मास, पक्ष, तिथि, वार का उच्चारण करके अपने गोत्र, पिता व स्वयं का नामोच्चार करते हुए रुद्रात्मक हनुमत्पसन्नता प्राप्त्यर्थ द्वादशाक्षर हनुमन्मंत्रस्य (…. संख्यांक) जपं करिष्ये। ऋषि छन्दादि न होने से विनियोग एवं संहार न्यास नहीं होते । करन्यास मूलमंत्र से ही कर लेने चाहिए।
अभीष्ट सिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल।
भक्त्या समर्पये तुभ्यमिदं ह्यावरणर्चनम्।।
यह बोलकर पुष्पाजंलि समर्पित करके षोडशोपचार से पूजा करें,, फिर मंत्र जप करें। पुरश्चरण में वर्णित विधिक्रम से जप करें। पूर्णाहुति के दिन अंजनी नन्दन की विशेष पूजा करें तथा उस दिन अहर्निश मंत्र जपता रहे।