परमब्रह्म राम इस लोक व उस लोक के तारणहार

राम नवमी विशेष : राम मानव जीवन के परम आदर्श 

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥

अर्थात् मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है।

आगमों और निगमों भी राम नाम को ही इस अखिल विश्व का आधार माना गया है। राम तत्व की शास्त्रों में भी बहुत विस्तार से चर्चा की गई है। वर्तमान काल में भी पुरी के शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वतीजी, जगतगुरु रामभद्राचार्य जी महाराज तथा अनेकों अन्य विद्वानों ने भी अपने प्रवचनों में राम तत्व का मांत्रिक और तांत्रिक रूप से विवेचन किया है।

भक्त की दृष्टि से देखें तो दशरथ पुत्र राम इस पूरे जीवजगत के ईश्वर हैं। वहीं महाविष्णु रूप में सृष्टि के सृजन हेतु ब्रह्मा को रचते हैं और वहीं परम परमेश्वर महादेव रूप में जगत के अंत का कारण बनते हैं। सृजन और अंत के मध्य की इस सृष्टि में ही राम तत्व ही स्वयं को अनगिनत रूपों में रच कर लीला रचता है। उसी राम तत्व की शास्त्रों में बहुत महिमा बताई गई है।

निर्गुण ब्रह्म तत्व ही राम स्वरूप में सगुण ब्रह्म है

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों को एक मान कर उनकी आऱाधना की गई है। इन दोनों में से किसी भी एक या दोनों स्वरूपों को जानने एवं समझने के लिए अनंत काल की साधना भी कम है। निर्गुण ब्रह्म ने ही जगत के कल्याण हेतु दशरथपुत्र राम के रूप में अवतार लिया। केवल मात्र राम नाम के जप से ही भक्त अपने आराध्य को जिस भी रूप में पाना चाहे, उसे पा सकता है। उसे अन्य कोई जप, तप अथवा अन्य साधन करने की आवश्यकता नहीं है। यही राम नाम की महिमा है।

दशरथ पुत्र राम ही है परम परमेश्वर

वन-वन में सीता की खोज में भटक रहे राम और उनके अनुज लक्ष्मण को देखकर जब स्वयं सती भी भ्रमित हो गई थी, ऐसे में सामान्य मनुष्य का तो कहना ही क्या। जगत के कल्याण और अपने भक्तों की रक्षा के लिए नाना प्रकार की लीला रचने वाले भगवान विष्णु ने ही एक समय मनु और शतरूपा को उनके तप से प्रसन्न होकर पुत्र रूप में आने का वरदान दिया था। वही मन और शतरूपा अयोध्या के राजा दशरथ और उनकी रानी कौशल्या के रूप में आए थे। अपने वरदान को पूर्ण करने हेतु ही श्रीहरि ने अपनी शक्तियों सहित दशरथ के घर जन्म लिया था।

अय़ोध्या में सब तरह शांति ही थी परन्तु पृथ्वी के अन्य भागों में राक्षसों ने मुनियों एवं भक्तों का जीना दुश्वार किया हुआ था। प्रायः वे ब्राह्मणों के यज्ञ का विध्वंस कर वनों मे जाकर छिप जाते थे। यही वजह है कि उन्होंने मंथरा और कैकेयी को माध्यम बना कर अपने लिए 14 वर्ष का वनवास मांगा। इसी वनवास काल में उन्होंने रावण सहित सम्पूर्ण आर्यावर्त के दुष्ट राक्षसों का वध कर दिया।

महान धनुर्धर राम और लक्ष्मण चाहते तो अकेले भी रावण का सेना का संहार कर सीता को मुक्त करवा सकते थे। परन्तु ऐसा करने पर नारद मुनि का वह शाप झूठा हो जाता जो उन्होंने विष्णुजी को दिया था कि वानर ही उनकी सहायता करेंगे। इसी प्रकार रावण को दिया ब्रह्माजी का वर भी मिथ्या हो जाता जिसमें उसने वानर और मनुष्य से मृत्यु का वर मांगा था। यही वे कारण थे जिनके कारण राम ने अपने को ईश्वर रूप में प्रकट न कर सामान्य मानवों की भांति जीवन जीया।

बताया मर्यादा का अर्थ

एक पुत्र के रूप मे राम मां कैकेयी और पिता दशरथ के वचनों का मान रखने के लिए बिना किसी सोच-विचार के तुरंत ही वन जाना स्वीकार कर लेते हैं। वही राम जंगल में भील-किरात आदि जातियों के साथ रहते हुए ऊंच-नीच और अस्पृश्यता के नियमों को नहीं मानते वरन वे सभी में एक समान भाव रखते हैं।

वनवास में ही रावण उनकी पत्नी सीता का हरण कर ले गया था, वे चाहते तो अयोध्या से भरत तथा सारी सेना को बुलाकर भी रावण पर चढ़ाई कर सकते थे। उन्होंने ऐसा नहीं कर वन में रहने वाले वानरों रीछों को ही अपनी सेना बनाया। यही नहीं, रावण के मारे जाने पर राम ने उसकी पत्नी मंदोदरी को अपमानित नहीं किया वरन एक सती की भांति ही उनका सम्मान किया। यह परंपरा भारतीय इतिहास के अतिरिक्त विश्व की अन्य किसी भी परंपरा में ऐसा उदाहरण मिलना असंभव है जब जीते हुआ राजा या उसकी सेना ने पराजित राजा की स्त्रियों की ओर कुदृष्टि नहीं डाली।

एक राजा के रूप में भी उन्होंने आदर्श शासन किया। राजा रामचन्द्र के राज्य में कभी कोई दुखी नहीं रहा, कभी किसी को त्रिबिध ताप (दैहिक, दैविक और भौतिक दुख) नहीं रहे। यही वजह है कि आज भी रामराज्य को आदर्श मान कर एक आदर्श राजा में भगवान राम को देखने का प्रयास किया जाता है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है

राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, सत्य यही है कि राम नाम एक महामंत्र है। एक ऐसा मंत्र जो एक डाकू को भी रामायण रचने वाले वाल्मिकी ऋषि में बदल देता है।

 

Anupam Jolly

1 comment

  • यहां पर गागर में सागर भरना मुहावरा सार्थक हे
    राम की महिमा का सुंदर वर्णन

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