वैदिक ज्योतिष में किसी भी शुभ कार्य हेतु समय का निर्धारण करते समय ग्रह-नक्षत्रों को भी विशेष महत्व दिया जाता है। सैद्धान्तिक रूप से लग्न नक्षत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है परन्तु प्रायोगिक रूप में चन्द्र नक्षत्र को ही देखा जाता है। चन्द्र नक्षत्र द्वारा व्यक्ति की मनस्थिति तथा प्रकृति का सहज ही पता चलता है।
ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में कुल सत्ताईस नक्षत्र बताए गए हैं, जिन्हें शास्त्रों में चन्द्रमा की सत्ताईस पत्नियों के रूप में वर्णित किया गया है। इन नक्षत्रों को नौ श्रेणियों में विभक्त कर तारा की संज्ञा दी गई है। इनके नाम क्रमशः जन्मा, सम्पत्, विपत्, क्षेम, प्रत्वर, साधक, नैधन्य (अथवा मृत्यु), मैत्र तथा परम मैत्र तारा हैं। ये इस प्रकार हैं-
जन्मा तारा
जन्मकालीन चन्द्रमा जिस भी नक्षत्र में होता है उसे जन्मा तारा कहते हैं। इसके अतिरिक्त दसवां तथा उन्नीसवें नक्षत्र को भी जन्मातारा कहते हैं। दसवें नक्षत्र को कर्म नक्षत्र तथा उन्नीसवें नक्षत्र को आधान नक्षत्र भी कहा जाता है। वैदिक मान्यतानुसार आधान नक्षत्रों में किए गए सभी कार्य पूर्णत नष्ट हो जाते हैं जबकि कर्म नक्षत्र में किए गए कार्य कभी सफल नहीं हो पाते हैं। जन्मा तारा को व्याधिमूलक अर्थात रोग उत्पन्न करने वाला भी माना गया है। अतः वैदिक ऋषियों के अनुसार जब भी गोचर का चन्द्रमा जन्म नक्षत्र अथवा जन्म नक्षत्र से दसवें अथवा उन्नीसवें नक्षत्र में हों तो कोई भी नया कार्य आरम्भ नहीं करना चाहिए अन्यथा असफलता और हानि ही होती है।
सम्पत् तारा
जन्म तारा से दूसरे, ग्यारहवें तथा बीसवें तारा को सम्पत् तारा कहा जाता है। सम्पत् तारा को समस्त प्रकार के कार्यारम्भ हेतु शुभ माना गया है। वैदिक मत के अनुसार जब भी गोचर का चन्द्रमा जन्म नक्षत्र से दूसरे, ग्यारहवें अथवा बीसवें तारे में हो तो अवश्य ही कार्य आरम्भ करना चाहिए। ऐसा कार्य निःसंदेह पूर्ण व सफल होता है।
विपत् तारा
जन्म तारा से तीसरे, बारहवें तथा इक्कीसवें तारे को विपत् तारा की संज्ञा दी गई है। अपने नाम की संज्ञानुरुप ही विपत् तारे अशुभ माने गए हैं। बुद्धिमान ज्योतिषि कहते हैं कि जब भी गोचर का चन्द्रमा जन्म तारे से तीसरे, बारहवें तथा इक्कीसवें नक्षत्र में हो तो किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करना यथासंभव टालना चाहिए। ऐसा कार्य अचानक ही आई किसी आपदा का शिकार हो असफलता को प्राप्त होता है। परन्तु यदि कोई क्रूर कार्य यथा मिथ्या भाषण, शत्रु संहार, षडयंत्र आदि करने हों तो उनके लिए विपत् तारे के प्रथम चरण का उपयोग करना अनुकूल परिणाम देता है।
क्षेम तारा
जन्म तारा से चौथे, तेरहवें तथा बाईसवें नक्षत्र को क्षेम तारा कहते हैं। इसे धन, सुख, सम्पत्ति आदि प्राप्त करने के लिए अत्यन्त अनुकूल माना गया है। गोचर का चन्द्रमा जब क्षेम तारे अर्थात जन्म तारा से चौथे, तेरहवें तथा बाईसवें नक्षत्र में हो तो उस समय यात्रा, धन संचय, नवीन वाहन, भवन, भूमि आदि का क्रय, व्यापार आरंभ करना आदि शुभ कार्य सफल होते हैं।
प्रत्वर तारा
जन्म तारा से पांचवें, चौदहवें तथा तेईसवें नक्षत्र को प्रत्वर तारा कहा जाता है। इस तारे में भूलकर भी कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए अन्यथा मृत्यु समान कष्ट होने की संभावना रहती है। विशेष तौर पर नया गृह प्रवेश, नया पदभार ग्रहण करना, नई वस्तु का क्रय-विक्रय करना व्यक्ति के लिए हानि लाते हैं।
साधक तारा
जन्म तारा से छठें, पन्द्रहवें तथा चौइसवें नक्षत्र को साधक तारा कहा जाता है। ज्योतिष ग्रंथों में साधक तारे की बड़ी महिमा बताई गई है। यदि गोचर का चन्द्रमा जन्म नक्षत्र से छठें, पन्द्रहवें तथा चौइसवें नक्षत्र में हो तो उस समय आरंभ किया गया कार्य अवश्य ही पूर्ण होता है, चाहे कार्य कितना ही असाध्य या दुष्कर हो। इस समय आरंभ किए गए कार्य में कभी हानि नहीं होती।
नैधन्य तारा
इस तारा को मृत्यु तारा भी कहते हैं। जन्म तारा से सातवें, सोलहवें तथा पच्चीसवें नक्षत्र को नैधन्य तारा कहा जाता है। जब गोचर का चन्द्रमा नैधन्य तारे में हो तो आदमी को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। इस समय दुर्घटना होने तथा शत्रु द्वारा पीड़ित किए जाने की प्रबलतम आशंका होती है। अतः इस समय आदमी को अपने जीवन के प्रति सावधान रहना चाहिए।
मैत्र तारा
जन्म तारा से आठवें, सत्रहवें तथा छब्बीसवें नक्षत्र को मैत्र तारा कहते हैं। मैत्र तारे को मांगलिक कार्यों हेतु प्रशस्त बताया गया है। जब गोचर का चन्द्रमा जन्म नक्षत्र से आठवें, सत्रहवें तथा छब्बीसवें नक्षत्र में हो तो उस समय विवाह, चूड़ाकर्म, मुंडन, उपनयन संस्कार, मैत्री, संधि, यज्ञ आदि के कार्य अवश्य ही करने चाहिए।
परम मैत्र तारा
जन्म तारा से नौवें, अठारहवें तथा सत्ताईसवें नक्षत्र को परम मैत्र तारा की संज्ञा दी गई है। जब गोचर का चन्द्रमा परम मैत्र तारे अर्थात् नौवें, अठारहवें तथा सत्ताईसवें नक्षत्र में हो तो उस समय आदमी जो भी इच्छा करता है, वह अवश्य पूरी होती है। इस समय जो भी कार्य किया जाता है वर अवश्य ही पूर्ण होता है।
विशेष
अर्थववेदीय ज्योतिष की मान्यता के अनुसार शुभ नक्षत्र तभी शुभ फल देने में सफल होते हैं जब वे समस्त दोषों से रहित होते हैं। दोषयुक्त नक्षत्र अपनी प्रकृति के विपरीत फल देने लगते हैं अर्थात् शुभ नक्षत्रों में आरंभ किए गए कार्य असफलता, हानि तथा समय की बर्बादी साथ लाते हैं। जबकि अशुभ नक्षत्र दोषयुक्त होने पर शुभ फल देने लगते हैं।
जन्म तारे के दोषयुक्त होने पर व्यक्ति की मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं। सम्पत् तारा के दोषयुक्त होने पर धन-सम्पत्ति की हानि होती है जबकि विपत् तारे के दोषयुक्त होने पर धन-सम्पत्ति प्राप्त होती है। क्षेम्य तारा के दोषयुक्त होने पर गृहस्थान छूट जाता है तथा साधक तारा के दोषयुक्त होने पर कार्य कभी पूर्ण नहीं हो पाता।
प्रत्वर तारे के दोषयुक्त होने पर समस्त रोग, शोक, कष्ट, विध्न-बाधाएं आदि नष्ट हो जाती हैं। नैधन्य अथवा मृत्यु तारे के दोषयुक्त होने पर व्यक्ति बड़े-से बड़े शत्रु का भी नाश कर देता है जबकि मैत्र तारे के दोषयुक्त होने पर अच्छे से अच्छा मित्र भी बड़ा भारी विरोधी बन कर उभरता है। परम मैत्र तारे के दोषयुक्त होने पर व्यक्ति को मानसिक िचंता, उद्गिन्ता आदि घेर लेते हैं।
इसी प्रकार गोचर का चन्द्रमा शुभ नक्षत्र में होने पर भी तभी लाभकारी होता है जब वह वेध दोष तथा पापाक्रान्त होने से मुक्त हो। संक्षेप में जब गोचर का चन्द्रमा सम्पत्, क्षेम, साधक, मैत्र तथा परम मैत्र तारा में वेध-मुक्त तथा पापाक्रान्त दोष रहित हो तभी नवीन कार्यारम्भ करना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि गोचर का चन्द्रमा विपत्, प्रत्वर तथा नैधन्य तारा में वेध दोष से युक्त तथा पापाक्रान्त हो तो भी नवीन कार्य आरंभ किए जा सकते हैं क्योंकि ऐसा होने पर इन नक्षत्रों का बुरा प्रभाव काफी हद तक समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त शुक्ल पक्ष में चन्द्रबल तथा कृष्ण पक्ष में तारा बल को आधार मानकर मुहूर्त का निर्धारण करना चाहिए।