भारतीय ज्योतिष और भारतीय पंचांग की सबसे बड़ी खूबी है शुभ मुहुर्त l भारतीय पंचांग में तिथी, वार, नक्षत्र, योग और करण ये पांच अंग होते है l इन पञ्च अंगों के विभिन्न संयोंगों से ही विशिष्ठ मुहूर्तों की सरंचना बनती है l आइये जानते है हमरे हिन्दू ज्योतिष में मुहुर्त में बनने बाले ये चमत्कारिक योग l
सिद्धि योग
विशेष वार तथा विशेष तिथियों के संयोग से बनने वाले योग को ही सिद्धि योग कहते हैं। ये निम्न पांच प्रकार के होते हैं-
(1) मंगलवार को जया तिथि (तृतीया, अष्टमी अथवा त्रयोदशी) आए।
(2) बुधवार को भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी अथवा द्वादशी) आए।
(3) गुरुवार को पूर्णा तिथि (पंचमी, दशमी अथवा पूर्णिमा) आए।
(4) शुक्रवार को नन्दा तिथि (प्रतिपदा, षष्ठी अथवा एकादशी) आए।
(5) शनिवार को रिक्ता तिथि (चतुर्थी, नवमी या चतुर्दशी) आए।
रविवार तथा सोमवार को सिद्धि योग नहीं बनता है।
अधम योग
इस योग को किसी भी नवीन कार्य की शुरुआत हेतु अशुभ माना गया है।यह योग दो प्रकार से बन सकता है- (पहला) तिथि व वार के संयोग से, (दूसरा) तथा वार एवं चन्द्र नक्षत्र के संयोग से बनता है। दोनों ही प्रकार से बनने वाले अधम योग की निंदा की गई है तथा उन्हें सभी प्रकार के शुभ कार्यों हेतु त्याज्य बताया गया है। वार तथा तिथि के संयोग से बनने वाला अधम योग निम्न स्थितियों में बनता है-
यदि रविवार को नन्दा तिथि हो, सोमवार को भद्रा तिथि हो, मंगलवार को नन्दा तिथि हो, बुधवार को जया तिथि हो, गुरुवार को रिक्ता तिथि हो, शुक्रवार को भद्रा तिथि हो तो अधम योग बनता है।
वार तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से बनने वाला अधम योग निम्न प्रकार है-
रविवार को भरणी नक्षत्र पड़े, सोमवार को चित्रा नक्षत्र पड़े, मंगलवार को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पड़े, बुधवार को धनिष्ठा नक्षत्र पड़े, गुरुवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पड़े, शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र पड़े तथा शनिवार को रेवती नक्षत्र पड़े तो भी अधम योग बनता है।
सर्वार्थसिद्धि योग
सर्वार्थसिद्धि योग वार तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से बनता है। यह अत्यन्त ही शुभ माना जाता है। इस मुहूर्त में जो भी कार्य आरंभ किया जाए उसमें अवश्य ही सफलता मिलती है। यह निम्न संयोगों से बनता है-
(१) यदि सोमवार को श्रवण, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य तथा अनुराधा नक्षत्र पड़ता हो।
(२) यदि मंगलवार को अश्विनी, उत्तराभाद्रपद, कृतिका तथा आश्लेषा नक्षत्र पड़ता हो।
(३) यदि बुधवार को रोहिणी, अनुराधा, हस्त, कृतिका और मृगशिरा नक्षत्र पड़ता हो।
(४) यदि गुरुवार को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र पड़ता हो।
(५) यदि शुक्रवार को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और श्रवण नक्षत्र पड़ता हो।
(६) यदि शनिवार को श्रवण, रोहिणी और स्वाती नक्षत्र पड़ता हो।
(७) यदि रविवार को हस्त, मूल, अश्विनी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र पड़ता हो।
अमृत सिद्धि योग
इस योग को सिद्धी योग तथा सर्वार्थसिद्धी योग की तुलना में अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता है। अमृत सिद्धि योग वार तथा चन्द्र नक्षत्र के निम्न प्रकार के संयोगों से बनता है-
(१) यदि रविवार को हस्त नक्षत्र आ रहा हो।
(२) यदि सोमवार को मृगशिरा नक्षत्र हो।
(३) यदि मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र हो।
(४) यदि गुरुवार को पुष्य नक्षत्र हो।
(५) यदि शुक्रवार को रेवती नक्षत्र आ रहा हो।
(६) यदि शनिवार को रोहिणी नक्षत्र आता हो।
यूं तो अमृत सिद्धी योग को समस्त मांगलिक कार्यों के लिए शुभ माना गया है परन्तु इसमें भी कुछ अपवाद है। जैसे कि मंगलवार को आने वाले अमृतसिद्धि योग में नवीन गृह में प्रवेश नहीं करना चाहिए। गुरुवार को पुष्य नक्षत्र के संयोग से बनने वाले अमृतसिद्धी योग में विवाह तथा पाणिग्रहण संस्कार नहीं किया जाता। शनिवार को आने वाले अमृतसिद्धी योग में महत्वपूर्ण यात्रा आरंभ नहीं करनी चाहिए। सोमवार, बुधवार, शुक्रवार तथा रविवार को बनने वाले अमृतसिद्धि योग में समस्त प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं।
द्विपुष्कर योग
तिथि, वार तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से द्विपुुष्कर योग बनता है। यदि रविवार, मंगलवार या शनिवार को भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी अथवा द्वादशी) हो एवं साथ ही धनिष्ठा, चित्रा या मृगशिरा नक्षत्र हो तो द्विपुष्कर योग बनता है। इस योग में जो भी कार्य आरंभ किया जाता है, उसकी पुनरावृत्ति होती है।
अतः इस योग में नए कारोबार का शुभारम्भ, सम्पत्ति का क्रय, धनोपार्जन के कार्य करने चाहिए। परन्तु इस योग में कोई भी अशुभ कार्य करने से बचना चाहिए, यथा किसी का दाह संस्कार, श्राद्ध आदि अन्यथा परिवार में किसी अन्य परिजन की मृत्यु का योग बन जाता है। मृत्यु टालना व्यक्ति के वश में नहीं होता अतः शव के अंतिम संस्कार की क्रिया को द्विपुष्कर व त्रिपुष्कर योग में करने से बचना चाहिए।
त्रिपुष्कर योग
द्विपुष्कर योग की ही भांति त्रिपुष्कर योग भी वार, तिथि तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से बनता है। यदि भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी अथवा द्वादशी) रविवार, मंगलवार या शनिवार को हो और उसके साथ कृतिका, पुनर्वसु, विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ या उत्तराभाद्रपद नक्षत्र हो तो त्रिपुष्कार योग बनता है। मान्यता है कि इस योग में जो भी कार्य किया जाता है, वह तीन बार होता है। अतः द्विपुष्कर योग की ही भांति इस योग में भी समस्त मांगलिक व शुभ कार्य करने चाहिए परन्तु अशुभ कार्य यथा मृतक का दाहसंस्कार, श्राद्ध, पिंडदान आदि भूल कर भी नहीं करना चाहिए, अन्यथा पुनरावृत्ति होने का भय बना रहता है।
यह ध्यान रखने योग्य बात है कि द्विपुष्कर तथा त्रिपुष्कर योग केवल रविवार, मंगलवार या शनिवार का भद्रा तिथियों के साथ योग होने पर ही बनते हैं, केवल नक्षत्र परिवर्तन होने पर द्विपुष्कर अथवा त्रिपुष्कर योग बनता है।
अमृत योग
यह अमृत सिद्धि योग से भिन्न है तथा शुभ कार्यों में त्याज्य माना गया है। अमृत योग वार तथा तिथि के संयोग से बनता है। यदि रविवार तथा मंगलवार को नन्दा तिथि हो, सोमवार तथा शुक्रवार को भद्रा तिथि हो, बुधवार को जया तिथि हो, गुरुवार को रिक्ता तिथि हो, शनिवार को पूर्णा तिथि हो तो इस योग का निर्माण होता है।
यमघंट योग
यमघंट योग वार तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से बनता है। यदि रविवार को मघा नक्षत्र हो, अथवा सोमवार को विशाखा नक्षत्र हो, अथवा मंगलवार को आर्द्रा नक्षत्र हो, या बुधवार को मूल नक्षत्र हो, अथवा गुरुवार को कृत्तिका नक्षत्र हो, अथवा शुक्रवार को रोहिणी नक्षत्र हो अथवा शनिवार को हस्त नक्षत्र आए तो यमघंट योग होता है। इस योग को अशुभ माना गया है तथा शास्त्रानुसार कोई भी शुभ कार्य इस योग में आरंभ नहीं करना चाहिए।
मृत्यु योग
मृत्यु योग वार तथा तिथि के संयोग से बनता है। यदि नन्दा तिथि (प्रतिपदा, षष्ठी या एकादशी) मंगलवार या रविवार को हो, अथवा भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी या द्वादशी) सोमवार या शुक्रवार को आ जाएं अथवा जया तिथि (तृतीया, अष्टमी या त्रयोदशी) बुधवार को आए, अथवा रिक्ता तिथि (चतुर्थी, नवमी या चतुर्दशी) गुरुवार को आए अथवा पूर्णा तिथि (पंचमी, दशमी, पूर्णिमा या अमावस्या) शनिवार को आए तो मृत्यु योग बनता है। इस समय किया जाने वाला कार्य निःसंदेह निष्फल होता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है।
दग्ध योग
दग्ध योग दो प्रकार से बनता है पहला वार तथा चन्द्र नक्षत्र के संयोग से, दूसरा तिथि तथा वार के संयोग से। वार तथा चन्द्र नक्षत्र के योग से बनने वाला दग्ध योग तभी माना जाता है जबकि रविवार को भरणी नक्षत्र हो, अथवा सोमवार को चित्रा नक्षत्र हो, अथवा मंगलवार को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र हो अथवा बुधवार को घनिष्ठा नक्षत्र हो, अथवा गुरुवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो, अथवा शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र हो अथवा शनिवार को रेवती नक्षत्र हो।
वार तथा तिथि के संयोग से बनने वाला दग्ध योग तब बनता है जबकि यदि सोमवार को एकादशी हो, मंगलवार को पंचमी हो, बुधवार को तृतीया हो, गुरुवार को षष्ठी हो, शुक्रवार को अष्टमी हो, शनिवार को नवमी हो अथवा रविवार को द्वादशी हो। इस योग में भी शुभ कार्य करने की मनाही है परन्तु जो कार्य पहले से चला आ रहा है, उसे नियमित रूप से चालू रखने में कोई दिक्कत नहीं है।
हुताशन योग
वार तथा तिथि के योग से बनने वाला हुताशन योग भी नए कार्य आरंभ करने के लिए शुभ नहीं माना गया है परन्तु यदि अन्य प्रबल शुभ योग हो तो इस योग को टाला जा सकता है। इस योग के बनने के लिए आवश्यक है कि सोमवार को षष्ठी हो, अथवा मंगलवार को सप्तमी हो, अथवा बुधवार को अष्टमी हो, अथवा गुरुवार को नवमी हो, अथवा शुक्रवार को दशमी हो, अथवा शनिवार को एकादशी हो अथवा रविवार को द्वादशी हो। वार तथा तिथियों की निरन्तरता के चलते ऐसा भी संभव है कि पूरा सप्ताह ही हुताशन योग बना रहे यदि सोमवार को षष्ठी तिथि हो और उसके बाद द्वादशी तक किसी भी तिथि में घट-बढ़ नहीं हो रही हो।
विष योग
यह योग भी वार तथा तिथि के संयोग से बनता है। इस योग में भी कोई नया कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए। यदि रविवार को चतुर्थी हो, या सोमवार को षष्ठी हो, या मंगलवार को सप्तमी हो, या बुधवार को द्वितीया हो, या गुरुवार को अष्टमी हो, या शुक्रवार को नवमी हो या शनिवार को सप्तमी हो तो विष योग बनता है।
शून्य तिथियां
यूं तो सभी तिथियां किसी न किसी वार अथवा चन्द्र नक्षत्र के साथ मिलकर शुभ-अशुभ योग बनाती है परन्तु हर मास में दो या तीन तिथियां ऐसी होती है जिनमें कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। इन तिथियों को ही शून्य तिथियां कहा जाता है। यथा भाद्रपद मास में प्रतिपदा व द्वितीया, श्रावण मास में द्वितीया तथा तृतीया, वैशाख मास में द्वादशी, पौष मास में चतुर्थी तथा पंचमी, आश्विन मास में दशमी तथा एकादशी, मार्गशीर्ष मास में सप्तमी तथा अष्टमी, चैत्र मास में अष्टमी तथा नवमी को शून्य तिथि माना जाता है। यह तिथियां शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष दोनों में से किसी में भी हो शून्य तिथियां ही मानी जाती हैं।
इनके अतिरिक्त फाल्गुन की कृष्ण चतुर्थी तथा शुक्ल तृतीया, ज्येष्ठ की कृष्ण चतुर्दशी तथा शुक्ल त्रयोदशी, आषाढ़ की कृष्ण षष्ठी तथा शुक्ल सप्तमी, माघ की कृष्ण पंचमी तथा शुक्ल षष्ठी, कार्तिक की कृष्ण पंचमी तथा शुक्ल चतुर्दशी को भी शून्य तिथी माना जाता है।
निन्दित तिथियां
शून्य तिथियों के अतिरिक्त निन्दित तिथियों को भी शुभ कार्यों हेतु प्रशस्त नहीं माना गया है। यदि प्रतिपदा तिथि को उत्तराषाढ़ नक्षत्र हो, द्वितीया तिथि को अनुराधा नक्षत्र हो, तृतीया तिथि को तीनों उत्तरा नक्षत्रों में से कोई भी एक हो, पंचमी को मघा नक्षत्र हो, षष्ठी को रोहिणी नक्ष६ हो, सप्तमी को हस्त तथा मूल नक्षत्र हो, अष्टमी को पूर्वाभाद्रपद नक्ष६ हो, नवमी को कृतिका नक्षत्र हो, एकादशी को रोहिणी नक्षत्र हो, द्वादशी को आश्लेषा नक्षत्र हो अथवा त्रयोदशी को स्वाति या चित्रा नक्षत्र हो तो इन तिथियों को निन्दित तिथी की संज्ञा दी जाती है।
शून्य नक्षत्र
सभी नक्षत्र किसी न किसी प्रकार से योग से जुड़े हुए है। परन्तु कुछ नक्षत्र मास के संयोग से भी अशुभ योग बनाते हैं, उस समय इन्हें शून्य नक्षत्र कहा जाता है। यथा चैत्र मास में रोहिणी तथा अश्विनी, वैशाख मास में चित्रा तथा स्वाती, ज्येष्ठ मास में उत्तराषाढ़ा तथा पुष्य, आषाढ़ मास में पूर्वाफाल्गुनी व घनिष्ठा, श्रावण मास में उत्तराषाढा़ व श्रवणा, भाद्रपद मास में शतभिषा तथा रेवती, आश्विन मास में पूर्वाभाद्रपद, कार्तिक मास में चित्रा एवं विशाखा, माघ मास में श्रवण तथा मूल, फाल्गुन मास में भरणी तथा ज्येष्ठा नक्षत्र को शून्य नक्षत्र कहा जाता है।
शून्य राशि
शून्य तिथी एवं शून्य नक्षत्र की ही भांति शून्य राशि भी होती है। यथा चैत्र मास में चन्द्र राशि कुंभ, बैशाख मास में मीन, ज्येष्ठ मास में वृष, आषाढ़ मास में मिथुन, श्रावण मास में मेष, भाद्रपद मास में कन्या, आश्विन मास में वृश्चिक, कार्तिक मास में तुला, मार्गशीर्ष मास में धनु, पौष मास में कर्क, माघ मास में मकर तथा फाल्गुन मास में सिंह राशि का चन्द्रमा शून्य फलदायी हो जाता है। अतः देसी महीनों के अनुसार जब भी चन्द्रमा संबंधित राशियों में विचरण करें तो उस समय नया शुभ कार्य यथासंभव टालना चाहिए।
त्याज्य योग
ऐसे योग वार, तिथी तथा चन्द्र नक्षत्र तीनों के संयोग से बनते हैं। यदि रविवार को पंचमी तिथि तथा हस्त नक्षत्र हो, सोमवार को षष्ठी तिथि तथा मृगशिरा नक्षत्र हो, मंगलवार को सप्तमी तथा अश्विनी नक्षत्र हो, बुधवार को अष्टमी तथा अनुराधा नक्षत्र हो, गुरुवार को नवमी तथा पुष्य नक्षत्र हो तो इन योगों को सर्वथा त्याज्य योग कहा जाता है। इन दशाओं में कभी भी कोई भी नया कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए।
कार्य विशेष में त्यागने योग्य वार तथा नक्षत्र
यदि गुरुवार को पुष्य नक्षत्र हो (जिसे गुरु पुष्य भी कहा जाता है) तो विवाह नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र हो तो गृह प्रवेश नहीं करना चाहिए। शनिवार को रोहिणी नक्षत्र होने पर कोई भी नई महत्वपूर्ण यात्रा आरंभ नहीं करनी चाहिए।
रवि योग
सूर्य तथा चन्द्र नक्षत्रों के संयोग से बनने वाला रवि योग दो प्रकार का होता है, (1) शुभ रवि योग तथा (2) अशुभ रवि योग।
शुभ रवि योग – सूर्य जिस भी नक्षत्र में हो, यदि उससे चन्द्र नक्षत्र तक गिनने पर ४, ६, १०, १३ अतवा २० संख्यक नक्षत्र आएं तो इसे शुभ रवि योग कहते हैं। ऐसा रवि योग समस्त दोषों का नाश करता है।
अशुभ रवि योग – सूर्य जिस भी नक्षत्र में हो, उससे चन्द्र नक्षत्र तक गिनने पर यदि 5, 7, 8, 10, 14, 15, 18, 19, 21, 22, 23, 24, 25 संख्यक नक्षत्र आए तो अशुभ रवि योग होता है। इस योग में कोई भी शुभ कार्य आरंभ नहीं किया जाता परन्तु यदि उग्र तथा क्रूर कर्म करने के लिए अशुभ रवि योग सर्वोत्तम मुहूर्त माना जाता है।
वर्जित योग
वैदिक ज्योतिष में कुछ ऐसे योग बताए गए हैं जिन्हें हमेशा ही त्यागना चाहिए। यथा जन्म का नक्षत्र, जन्म की तिथि, व्यतिपात, भद्रा, अमावस्या, माता-पिता की मृत्यु की तिथि, तिथिक्षय, तिथि वृद्धि, क्षयमास, अधिमास को किसी भी शुभ कार्य में त्यागना चाहिए। इसके अतिरिक्त विषकुंभ तथा वज्रयोग के आरंभ की तीन घटी, परिघ योग का पूर्वार्द्ध, शूल योग के प्रारंभ की पांच घटी, गंड तथा अतिगंड योग के आरंभ की छह घटी तथा व्याघात योग के आरंभ की नौ घटी को त्यागकर ही मांगलिक कार्य आरंभ करना चाहिए।
रंध्र तिथि
शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी तथा चतुर्दशी को रन्ध्र तिथि की संज्ञा दी गई है। इन तिथियों के आरंभ होने से 8, 9, 14, 25, 10 तथा 5 घड़ियां समस्त शुभ कार्यों में त्यागने की आज्ञा दी गई है। तिथियों के शेष भाग में कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है।