रहस्य सिद्धि भाग – 2 : चमत्कार
साधना पथ पर चमत्कार क्या है ?
जिन्दगी इतनी जटिल है कि वहाँ हमें जो बातें विरोधी दिखाई पड़ती हैं, वे भी ठीक हो जाती हैं। जिन्दगी वैसी नहीं है, जैसा हम उसके बारे में सोचते हैं या देखते हैं, जिन्दगी बहुत ही जटिल है। जिन्दगी में बहुत से विरोध समाहित हैं, जिन्दगी बहुत बहुत बड़ी है।
आपने विज्ञान के प्रयोग देखे होंगे-ग्लिसरीन और परमेगनेट पोटाश मिलाने से आग लग जाती है। ऐसे ही कुछ रसायनों को मिलाने से धुआँ भी उत्पन्न हो जाता है । जादूगर अथवा चालाक व्यक्ति हाथ की सफाई से, रसायनों के योग से अनेक चमत्कार दिखाते हैं । सर्वसाधारण व्यक्ति इनसे चमत्कृत हो जाते हैं। कुछ लोग ऐसे ही अन्य चमत्कार गेरुए वस्त्र पहन कर दिखाते हैं, आप श्रद्धा से उनके चरणों में लोटने लगते हैं। हमारा उद्देश्य यहाँ बाजीगरी के खेल सिखाने का नहीं है। हम यहाँ केवल ध्यान की गहराई और उससे होने वाले परिणामों पर ही प्रकाश डालेंगे।
गहरा ध्यान ही सच्चा योग है। इस ब्लॉग में ऐसी ही चमत्कारिक योग विद्या का उल्लेख करेंगे। परन्तु स्मरण रहे कि इनके सही प्रयोग ही किये जायें। असफलता हाथ लगने पर अपनी क्रियाओं का पुनरावलोकन करें। सिर्फ इतना अवश्य ही स्मरण रखें – एक बार में केवल एक ही सीढ़ी चढ़नी होती है, बहुत सीढ़ियाँ कोई नहीं चढ़ सकता । एक सीढ़ी आप चढ़ जायें, दूसरी सीढ़ी आप के सामने अपने आप आ जाती है। अगर विवेक की सीढ़ी कोई चढ़ जाये तो उसके सामने दूसरी सीढ़ियाँ अपने आप ही आ जाती हैं, उद्घाटित होती चली जाती हैं। सच्चा गुरु वही है, जो केवल विवेक सिखाता है। शेष कुछ भी सीखने जैसा नहीं है।
हमारी असफलता का प्रमुख कारण है कि हम विवेक नहीं सीखते, हम विचार सीख लेते हैं, शब्द सीख लेते है, शास्त्र सीख लेते हैं। विवेक और विचार में भेद है। विचार पाण्डित्य लाते हैं। पाण्डित्य प्रदर्शन चाहता है। जो पाडित्य और प्रदर्शन का मार्ग पकड़ते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं। जो विवेक को पकड़ते हैं, वे सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ते हुए प्रज्ञा और मोक्ष को उपलब्ध होते जाते ।
चमत्कार का मूल्य
भगवान बुद्ध एक बार अपने कुछ शिष्यों के साथ किसी दूसरे नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में नदी पड़ी। नदी चौड़ी थी, गहरी थी। उसमें एक नाव थी, जो यात्रियों को इस पार उस पार पहुंचाती थी। बुद्ध नदी के किनारे पहुँचे ही थे कि नाब यात्रियों को लेकर दूसरे किनारे की ओर रवाना हो गई। बुद्ध और उनके शिष्य नाव लौटने की प्रतीक्षा इसी कनारे पर बैठ करने लगे। इनके पीछे ही एक संन्यासी था । वह भी नाव पर सवार नहीं हो पाया, परन्तु संन्यासी रुका नहीं। वह अपनी योग विद्या से पानी पर चलता हुआ, दूसरे किनारे की ओर चल पड़ा। नदी की गहराई और चौड़ाई उसे रोक नहीं पाई।
बुद्ध इसी किनारे पर बैठ अपने शिष्यों से बात कर रहे थे। एक शिष्य की दृष्टि उस संन्यासी पर पड़ी तो वह आश्चर्य से आँखें फाड़-फाड़ कर उधर ही देखने लगा। जब वह अपना कौतुहल न रोक सका तो उसने भगवान बुद्ध का ध्यान भी उसी संन्यासी की ओर आकर्षित करते हुए कहा-“भन्ते ! क्या आप उस संन्यासी को देख रहे हैं, जो बिना सहारे पानी पर जा रहा है ?”
बुद्ध ने शान्ति से उत्तर दिया-“हाँ वत्स !”
“इस विलक्षणता का मूल्य क्या है ?” “सिर्फ दो कौड़ी !” बुद्ध का शान्त उत्तर था।
अब तो शिष्य से न रहा गया। उसने पुनः कहा- भन्ते ! यह तो अन्याय है ! ऐसी विलक्षण योग विद्या का मूल्य आपके निकट केवल दो कौड़ी ही क्यों ?” “और नहीं तो क्या ? केवल पानी पर चलने के लिये इतनी साधना करना व्यर्थ ही तो है ! नदी तो दो कौड़ी देकर नाव से भी पार की जा सकती है !” कहकर बुद्ध पुनः अन्य शिष्यों की ओर अभिमुख हो गये।
सम्मोहन एक चमत्कार
हमारी पूरी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा सम्मोहन का है और जब हम सम्मोहित होते हैं तो खयाल ही नहीं रखते कि यह क्या कर रहे हैं!
सम्मोहित व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के क्या परिणाम निकलते हैं, शायद इस छोटे उदाहरण से आपकी समझ में आ जाये। एक आदमी साइकिल चलाना सीख रहा है। लगभग साठ फीट चौड़ा रास्ता है और उसके किनारे पर मील का पत्थर गड़ा है । अब यह आदमी इतने चौड़े रास्ते पर आँख बन्द करके भी साइकिल चलाये तो बहुत कम मौके हैं कि उस पत्थर से जा टकराये, लेकिन उस आदमी को तो अभी साइकिल चलाना ठीक से नहीं आता।
वह आदमी अपने अल्प अभ्यास को खूब जानता है । मील का पत्थर उसके मन में संशय पैदा करता है। वह डरता हुआ सोचता है-कहीं इस पत्थर से न टकरा जाऊँ! भय जोर पकड़ता है, उसे खयाल नहीं है फिर भी वह भयभीत है । अब उसे वह रास्ता (इतना चौड़ा) नहीं दीखता । दीखता है सिर्फ पत्थर ! बस ! जैसे ही उसको डर हुआ कि टकरा न जाऊँ इस पत्थर से कि वह हिप्नोटाइज (सम्मोहित ) हुआ। यानी हिप्नोटाइज़ होने का मतलब यह हुआ कि उसे रास्ता दीखना बन्द हो गया और पत्थर दीखना शुरू हो गया। अब उसे पत्थर, रास्ते से भी बड़ा दिखने लगा। वह डर रहा है। साइकिल चल रही है, परन्तु हैण्डिल मुड़ रहा है पत्थर की तरफ। जितना हैण्डिल कड़ा होता जाता है, उतनी ही तेजी से पत्थर की ओर घूमने लगता है। जितना हैण्डिल घूमता जाता है, उतना ही उसका भय बढ़ता जाता है । और हाथ उसके विवश होते जा रहे हैं। जहाँ ध्यान है, वहीं तो हैण्डिल जायेगा ! और ध्यान उसका पत्थर पर है । और ध्यान इसलिये है कि कहीं टकरा न जाऊँ पत्थर से! बस तभी रास्ता मिट गया। पत्थर ही रह गया। पत्थर के खयाल ने उसे सम्मोहित कर लिया है। अब यही सम्मोहन उसे निरन्तर पत्थर की ओर खींच रहा है। वह आदमी विवश है खिंचने के लिये। यह अज्ञात सम्मोहन ही है, जो उसे पत्थर की ओर खींचे लिये चला जा रहा है। वह जितना पत्थर की ओर जाता है, उतना ही घबराता है। जितना घबराता है, उतना ही पत्थर की ओर खिचता जाता है। अब वह आदमी पत्थर से टकरा ही जाता है।
किसी भी समझदार आदमी को यह सब व्यापार देखकर बड़ी हैरानी हो सकती है। अवश्य ही होगी। वह सोचेगा-इतना बड़ा रास्ता था। उतना-सा पत्थर था और वह भी एकदम किनारे पर था, फिर वह इस पत्थर से कैसे टकरा गया?
बस, यही हिप्नोटिज्म है। हिप्नोटिज्म में बड़ी शक्ति है। आप हिप्नोटिज्म के इसी चमत्कार को जीवन में प्रतिदिन देखते हैं।
आप यदि अपने कार्यों (Actions) का भी अवलोकन करें तो आप भी पायेंगे कि आपके सारे कार्य इसी हिप्नोटिज्म के प्रभाव में बँधे हैं। शराब पीना, विवाह करना, क्रोध करना, ईश्वर से डरना, झूठ बोलना, बेईमानी करना आदि जितने भी कार्य हैं, कहीं गहराई में इसी हिप्नोटिज्म से नियंत्रित हैं।
इस साइकिल सीखने वाले भले आदमी की बाबत ही सोचें तो आप भी इन तथ्यों को स्पष्ट देख सकेंगे।-शरीर उस तरफ ही जाता है, जहाँ ध्यान होता है। शरीर तो अनुगामी है ध्यान का ! ध्यान आकर्षित हुआ और वह चल पड़ा। और जितना वह डरा, जितना वह तना, उतना ही ध्यान रखना पड़ा पत्थर का कि कहीं टकरा न जाऊँ, पत्थर को ही देखता रहूँ । जिसको उसने देखा, जिसकी उसने चिन्ता की, जिसका ध्यान उसके मन-मस्तिष्क में समा गया, उससे वह सम्मोहित हो गया और उसी की ओर बढ़ता चला गया।
विरोध या आकर्षण से बचें ‘योग‘ के क्षेत्र में कदम रखने वाले सदैव इस बात का स्मरण रखें तो उनकी बहुत-सी मुश्किलें स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी l जिन्दगी में हम जिन भूलों से बहुत सचेत होकर बचना चाहते हैं, अक्सर वे भूलें ही हमें फाँस लेती हैं, हम उनसे जा टकराते हैं, उनसे ही हम सम्मोहित हो जाते हैं।
यदि जरा भी खुली आँखों से हम देखें अथवा चिन्तन करें तो पायेंगें-जो सैक्स विरोधी हैं, वे कामुक हो जाते हैं। जिस समाज में जितना काम का विरोध होगा, जितनी ही ‘काम’ की निन्दा की जायेगी, उतना ही वह उसके सम्मोहन में फँसता जायेगा। निरन्तर ध्यान उसमें ही बना रहेगा। जितनी ही ब्रह्मचर्य की बातें होंगी, उतने ही गन्दे और व्यभिचारी लोग उस समाज में पैदा होते चले जायेंगे । ब्रह्मचर्य की अत्यधिक चर्चा कामुकता पर चित्त को केन्द्रित कर देती है। इस हिप्नोटिज्म को तोड़ना मुश्किल है; क्योंकि जितनी उसे तोड़ने की व्यवस्थाएँ की जाती हैं, उतनी ही हिप्नोसिस बढ़ती है।
जो आदमी स्त्री से डरेगा कि कोई सुन्दर स्त्री दिखाई न पड़ जाये, नहीं तो वासना उठ आयेगी तो उसको चौबीसों घण्टे सुन्दर स्त्री दिखाई पड़ेगी। धीरे-धीरे कुरूप स्त्रियाँ भी उसे अति सुन्दर दिखाई पड़ने लगेंगी। यह भी हो सकता है कि उसे पुरुष भी स्त्री मालूम होने लगें। पीछे से कोई साधु भी दिखाई पड़ जाये तो वह चक्कर लगाकर देख आयेगा कि कौन है ! बड़े बाल हों तो स्त्री का शक होगा। चित्र या पोस्टर हो तो उससे भी सम्मोहित हो जायेगा।
अब स्त्री के सिवाय उसे कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। अब वह चाहे मन्दिर में जाये, गिरजा में जाये या गुरुद्वारे में जाये, ऐसे सम्मोहित व्यक्ति को कहीं भी जाने पर स्त्री ही दिखाई पड़ेगी।
एक आदमी क्रोध से डरता है कि कहीं क्रोध न आ जाये तो वह चौबीस घण्टे में चौबीस बार पायेगा कि क्रोध आ गया है। क्रोध है कि पीछा ही नहीं छोड़ता। इसी तरह जिन्दगी में न मालूम हमने क्या-क्या हिप्नोसिस बना रखे हैं और उनको हम पैदा किये ही चले जाते हैं और फिर उन्हीं में जिये चले जाते हैं। इन सब झठे काँटों को उखाड़ना जरूरी है। इनकी गहराई को, इनकी वास्तविकता को जान लेना, आत्यन्तिक गहराई से अनुभव कर लेने मात्र से ही ये उखड़ जायेंगे।
क्रमशः ………..