रहस्य सिद्धि धारवाहिक श्रंखला भाग 1
भारत में योग और तंत्र का विकास एक साथ हुआ । ऋषि पातंजलि और अन्य ऋषियों ने सीमित जीवन में भी खुद को असीमित कर दिया । और न सिर्फ अपने को असीमित किया अपितु उसकी विधियाँ भी जिगासुओं को सिखाई । मानें तो मानव शरीर की सीमाए निश्चित है नहीं तो ये असीमित भी है । योग की इस यात्रा पर अकेले ही निकलना पड़ता है । रहस्य सिद्धि की इस धारावाहिक श्रंखला में आपका स्वागत है । चले शुरू करते है अज्ञात की यात्रा….
साधना की तैयारी
मेरे ब्लॉग रहस्य सिद्धि का प्रथम भाग में कुछ ऐसी बातों का समावेश है, जिनके अभाव में साधक के असफल होने की सम्भावना 99 प्रतिशत रहती है।
साधना की प्रथम सीढ़ी पार करें, फिर सभी सीढ़ियाँ आसान हो जायेंगी। इन सभी बातों को अच्छे से जान लेना और अच्छे से साध भी लेना भी अपने आप में एक बड़ा चमत्कार है।
हमारा जीवन बंद आँखों से चल रहा है ।
उपरोक्त शीर्षक देखकर चौंकिये मत ! जी हाँ, हम लोगों की आँखें ही बन्द हैं । शुतुर्मुर्ग की तरह किसी अपरिचित (शत्रु) को आते देखकर हमने अपना मुंह रेत में गड़ा लिया है और समझते हैं कि आपत्ति टल गई।
योग की राह पर चलने से डरें नहीं!
हम में से कोई भी आँख खोलने को राजी नहीं है, क्योंकि आँखें खोलने पर ऐसे सत्य दिखाई पड़ने लगते हैं, जो हम देखना नहीं चाहते। उनके दिखाई देते ही हमारे विश्वास, हमारे आदर्श, हमारे सिद्धान्त लड़खड़ा जाते हैं। हमारे अहंकार को चोट लगती है, हमारे स्वार्थ छिन्न-भिन्न होते दिखाई पड़ते हैं।
क्या कभी आपने गौर से आँख खोलकर जिन्दगी को देखा है कि जिन्दगी कैसी है ? अपने आप को कभी आँख खोलकर देखा है ? अपनी मान्यताओं को कभी परखा है ? वही हम करना नहीं चाहते क्योंकि तब वहाँ ऐसा-ऐसा दिखाई पड़ेगा, जो घबराने वाला है। इसीलिये आँखें बन्द करके जो हम देखना चाहते हैं, जो हमें प्रिय है, उसकी कल्पना कर लेते हैं। आदमी जब आँख खोलने को राजी ही नहीं है तो अन्धापन चलेगा हो! कभी आपने सोचा है कि योग‘ का अर्थ क्या है ? बचपन में आपने जरूर सुना होगा, पढ़ा होगा और योग किया भी होगा !
प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षक गणित पढ़ाते समय योग के प्रश्न आपसे हल कराते रहे होंगे। दो और दो का योग चार होता है।
-बड़ी सीधी सी बात है। ‘योग‘ का अर्थ ‘जोड़‘ होता है। सांसारिक अर्थों में हमने इस ‘योग’ शब्द को ही विकृत रूप दे दिया है। हमारी मान्यताओं में, मोटे अर्थों में हम ‘योग’ को वियोग के रूप में मान बैठे हैं । संसार को छोड़ना, भयभीत होकर भाग खड़े होना, परिवार और परिचितों से बिछोह ही योग का पर्यायवाची बन गया है। क्या यह गलत नहीं है ?
दो शक्तियों का जोड़ ही योग है। मनुष्य इस सृष्टि की इकाई है। परमात्म तत्व शक्ति का भण्डार है । आत्मशक्ति का परमात्म शक्ति से ऐसा मिलन हो जाना कि दो न रहें, एक ही रह जायें, यही क्रिया योग‘ कहलाती है।
योग की विधि, उसका सत्य ज्ञान ही यौगिक क्रिया कहलाती है। जब योग की विधिवत् शिक्षा दी जाती है, उस पर विचार किया जाता है, प्रयोग किये जाते हैं, परिणाम निकाले जाते हैं, या
सिद्धान्त निरूपित किये जाते हैं तो यह सब योग विद्या अथवा योग विज्ञान कहलाने लगता है।
एक बात का स्मरण रखें कि जानकारी और ज्ञान में अन्तर है। किसी भी बात की जानकारी का अर्थ केवल सूचनाओं पर आधारित होता है । जब कि उस बात का व्यक्तिगत अनुभव
ही ज्ञान बन सकता है। जो आदमी बुद्धिमान है, वह किसी मान्यता, किसी सिद्धान्त से चिपकता ही नहीं है, वह तो बुद्धिपूर्वक जीता है। वह कुछ भी पकड़ता नहीं है, किसी जंजीर का, किन्हीं बेड़ियों का निर्माण नहीं करता है; क्योंकि वह जानता है कि स्वतन्त्र रहने का अलग ही आनन्द है। योग एक नई बात सिखाता है, वह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक नई चेतना जगाता है ।
यह ब्लॉग लिखने की आवश्यकता इसलिए है कि प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र हो जाये, उसमें विचारवान होने की, चेतनावान होने की आत्मवान होने की आकांक्षा पैदा हो जाये। अनुयायी होने की, किसी के पीछे चलने की, किसी को मानने की, अन्धे होने की प्रवृत्ति कम हो जाये । सवाल यह नहीं है कि यह छुड़ाओ और दूसरा पकड़ा दो। सवाल तो यह है कि जो पकड़ने वाली, चिपक जाने वाली बुद्धि है उस पर आओ।
असल में मैं इतना ही समझाना चाहूँगा कि वस्त्र की बदलाहट से कुछ भी नहीं होता । बाल बढ़ा लेने से या सिर मुंडा लेने से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। कोई कैसे भी बाल रखे, कोई कुछ भी पहने-किसी को गेरुआ पहनने की मौज है तो उसको क्यों रोके ? क्या जरूरत है रोकने की? किसी को काला या पीला ‘पहनने की जरूरत है, तो उसे काला या पीला पहनने दें, लेकिन स्मरण रखें कि वस्त्र की बदलाहट जीवन की बदलाहट नहीं है, इसलिये वस्त्र बदलने या छुड़वाने की भी कोई जरूरत नहीं है।
क्योंकि जो आदमी वस्त्र छुड़वायेगा या रूप बदलवायेगा वह नया वस्त्र फौरन पकड़ायेगा!
ॐ तत सत ।।
क्रमशः …………….