Anupam Jolly

रहस्य सिद्धि – पुरुषार्थ और वैज्ञानिक बुद्धि ले जाएगी गंतव्य तक

रहस्य सिद्धि भाग – 4 स्वयं के अनुभव का महत्व

मांगना नहीं है – खोजना है 

विचारवान और खोजी चित्त का लक्षण यह है-अगर है तो मैं खोजूंगा। अगर मिलेगा तो मेरी पात्रता और अधिकार से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे जीवन-दान से मिलेगा; मेरे तप से, मेरे ध्यान से मिलेगा । अगर मिला तो वह मेरे सतत श्रम का फल होगा।

स्मरण रखें-विचारवान व्यक्ति को मुफ्त में यदि परमात्मा भी मिलता हो, तो वह ठुकरा देगा। कहेगा-जो अपने श्रम से नहीं मिला, उसे लेना ठीक ही नहीं है । मैं नपुंसक नहीं हूँ,  मैं अपने श्रम से ही पाऊँगा । ध्यान रहे-कुछ चीजें अपने श्रम से ही पाई जा सकती हैं। किसी से कृपास्वरूप या वरदान में मिली हुई वस्तु का कोई अपना निजी आनन्द नहीं है।

अतः खोज पर निर्भर रहना, भिक्षा पर नहीं । भिक्षा में केवल वे ही वस्तुएँ दी जाती हैं, जो व्यर्थ होती हैं, जो दाता पर भार-स्वरूप हो जाती हैं।

योग का उद्देश्य आपको समर्थ बनाना है। योग की इच्छित मंजिल पर पहुँच जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण साधक का मजबूत होते जाना है। कुछ पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण, पाने वाले का रूपान्तरण हो जाना।

कल्पना जगत – एक बड़ा खतरा 

साधक की दुनिया में जो सबसे बड़ा खतरा है, वह है कल्पना का खतरा । कभी-कभी साधक उन सत्यों की भी कल्पना कर लेता है, जिनका कि उसे अनुभव होना चाहिये था। अनुभव और कल्पना में बुनियादी भेद है। इस उदाहरण से समझें

एक आदमी ने दिन-भर खाना नहीं खाया है। भूख उसकी चेतना तक व्याप्त हो गई है। रात में सोया, नींद आई और सपने शुरू हो गये। दिन भर भूख से परेशान रहा और भोजन का चिन्तन चलता रहा । सपने में सुस्वादु व्यंजनों का किसी ने निमत्रण दिया है। वह सपने में भी भोजन कर लेता है।

जहाँ तक सपने में भोजन करने का सम्बन्ध है, वहाँ तक सपने में बड़ी तृप्ति भी मिल जाती है । शायद जागते में उतना आनन्द नहीं आता है, जितना सपने में भोजन करने में आता है।

क्योंकि जितना चाहे और जैसा चाहे, उतना ही और वैसा ही भोजन कर लेता है, लेकिन सुबह उठने पर, उस भोजन का पेट में कोई प्रभाव शेष नहीं रहता। प्रभाव शेष रहेगा भी कैसे ?

भोजन पेट में तो किया ही नहीं गया था, वह तो अचेतन मानसिक स्थिति थी, आत्मसम्मोहन था ? स्वप्न में किये गये, आत्मसम्मोहन की स्थिति में किये गये इस काल्पनिक भोजन से न तो पेट भरता है और न उस भोजन से खून, मांस-मज्जा ही बनता है। यदि सपने के भोजन पर कोई आदमी जिन्दा रहने लगे, निर्भर रहने लगे तो वह जीवित नहीं रह सकेगा; क्योंकि सपने का भोजन भले ही कितनी भी तृप्ति देता हो, परन्तु वह कुछ निर्माण नहीं कर सकेगा। सपने में सिर्फ धोखा बन सकता है।

सपने में और सम्मोहन में जो कुछ भी होता है, वह धोखा होता है, भ्रम होता है । सपने में सिर्फ भोजन ही नहीं होते, सपने के भगवान भी होते हैं । सपने की सिद्धियाँ भी होती हैं।

सपने की शक्तियाँ भी होती हैं, सत्य भी होते हैं, मुक्ति भी होती है। आदमी के मन की सबसे बड़ी क्षमता जो है, वह है खुद को घोखा दे लेने की क्षमता ! भ्रमित व्यक्ति ही दूसरों को भ्रम में डाल सकता है । एक आश्चर्यजनक कल्पना का भ्रम-जाल बुन सकता है। परन्तु स्मरण रखें, इस प्रकार के धोखे में पड़ने से कोई कभी भी, वास्तविक आनन्द को उपलब्ध नहीं हो सकता।

अनवरत धर्य ही दिलाएगा सफलता 

किसी भी प्रकार की साधना करने वाले साधक में अनन्त धैर्य होना चाहिये। उतावलापन और भगोड़ा चित्त अन्धविश्वास तथा झूठी मान्यताओं को जन्म देता है । अन्धविश्वासी उत्सुक रहता है पाने के लिये कि कैसे मिल जाये ? खोज की सुविधा उसे नहीं है। वह कहता है-आप खोजें और मुझे बता दें। इसी लिये ऐसे व्यक्ति गुरु की तलाश में निकल पड़ते हैं। गुरु की तलाश का मतलब ही है कि किसी व्यक्ति ने खोज लिया है। तो बस, अब मुझे खोजने की क्या जरूरत है ?’ ऐसे नपुंसक वृत्ति के लोग, अन्धविश्वासी चित्त-वृत्ति के लोग ही किसी बड़े जालसाज के चक्कर में फंस जाते हैं। वह उसके पैर पकड़ लेते हैं, चिलम भरते हैं और वर्षों तक मनुहार करते हैं-आप कृपाकर हमको दे दें। हम पर शक्तिपात कर दें। हे गुरु, हमें वरदान देकर धन्य बना दें। आप ही हमारे परमेश्वर हैं। कोई दूसरा व्यक्ति उनकी खोपड़ी पर हाथ रख दे, उनको सिद्धियाँ सौंप दे। इसके लिये वे मंत्र लेते फिर रहे हैं, कान फुकवा रहे हैं, फीस चुका रहे हैं, चरण दाब रहे हैं, सेवा कर रहे हैं सिर्फ इस गलत आशा में कि किसी का मिला हुआ, मेरा मिला हुआ बन जाये । यह कभी भी सम्भव नहीं है। यह मात्र स्वप्न की तृप्ति होगी।

साधक को वैज्ञानिक चित्तवृत्ति का होना चाहिये । स्वयं खोज करना चाहिये । स्वयं के प्रयोगों से जो उपलब्धि होगी, उसका रस ही अनूठा होगा। सतत लगन, आवश्यक श्रम, सम्पूर्ण सजगता और अनन्त धैर्य वाला ही सिद्ध हो सकेगा।

स्मरण रखें-जिसने भी खोजा है, उसे पता लग गया है खोजते समय कि खोजने से मिलता है, मांगने से नहीं मिलता। इसीलिये वह शिष्य नहीं बनाता, कभी नहीं बनायेगा। शिष्य सिर्फ वे ही लोग बना रहे हैं, जिन्हें खुद भी नहीं मिला है। वे भी किसी और गुरु को पकड़े हैं । उनके गुरु और ऊपर के गुरु को । ऐसे ही एक-दूसरे की टाँग पकड़े हुए गुरुओं की लम्बी शृंखला घली गई है।

कुछ करुणा से भरे हुए खोजियों ने करुणावश यह सूचना अवश्य दे दी है कि यहाँ यह वस्तु मौजूद है । अब साधक का यह काम है कि वह रास्ता तय करे और मंजिल पर पहुँच जाये।

रास्ते में ही थककर बैठ जाने वाला मंजिल तक तो पहुंचता ही नहीं है, हाँ रास्ते को बदनाम अवश्य करता है।

क्रमशः ……….

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